भक्ति की पराकाष्ठा

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भक्ति की पराकाष्ठा

भगवान की सच्ची भक्ति क्या है?

भगवान की सच्ची भक्ति क्या है? :- एक बार कि बात है क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेष शैया पर विश्राम कर रहे थे और लक्ष्मी जी उनके चरण पखार रही थी।
तभी भगवान विष्णु के एक पैर का अंगूठा शैया के बाहर आ गया और क्षीरसागर की लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं। उस समय क्षीरसागर में रहने वाले एक कछुए ने यह दृश्य देखा और उसके मन में एक विचार आया कि यदि मैं प्रभु के अंगुठे को अपनी जीभ से स्पर्श कर लूंगा तो मेरा उद्धार हो जायेगा ऐसा सोंचकर वह भगवान श्री हरि कि ओर चल पड़ा।
परन्तु भगवान नारायण की ओर बढ़ते हुए उसे भगवान अनन्त यानि शेषनाग जी ने देख लिया और थोड़ा जोर से फुँफकारा।
अतः फुँफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया।
किन्तु एक समय पश्चात् जब भगवान अनन्त का ध्यान उस पर से हट गया तो उसने पुनः प्रयास करने का प्रयत्न किया। लेकिन इस बार देवी लक्ष्मी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे वहां से भगा दिया।
परन्तु उसे हरि चरणों से इस प्रकार प्रेम हो गया कि उस कछए ने अनेकानेक प्रयत्न किये परन्तु शेषनाग जी और माता लक्ष्मी के कारण उसे सफलता नहीं मिली। यह भी उस परमपिता परमेश्वर की ही एक लीला थी जिसे जानकर आपको अत्यन्त हर्ष होगा।
सृष्टि की रचना हो गई और सत्युग बीत जाने के बाद त्रेता युग आ गया।
इस बीच उस कछुए ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता रहा।
.अनेक जन्मों में किये गये तप के बल के कारण उसने दिव्य दृष्टि को प्राप्त कर लिया था।
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अतः कछुए को पहले से ज्ञात था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शेष शैया पर शयन करने वाले भगवान विष्णु श्री राम का, वही शेषनाग जी लक्ष्मण जी का और वही लक्ष्मी देवी माता सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी।
इसीलिये वह केवट के रूप में जन्म लेकर वहां पहूंच गया।
जैसा आपको हमने उपर की पंक्तियों मे बताया वह एक युग से भी अधिक समय तक तपस्या करने के कारण तपोबल से उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे इसीलिये उसने श्री राम से कहा कि मैं आपका मर्म जानता हूँ।
संत श्री तुलसी दास जी भी इस तथ्य को जानते थे इसलिये अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया है कि..
“कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।
केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध कर के फुँफकारते थे और मैं डर जाता था।
अबकी बार यदि लक्ष्मण के रूप में शेषनाग जी मुझ पर अपना बाण भी चला दे पर मैं अब कहीं नहीं जाउंगा। इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खो देना नहीं।
इसीलिये परमसंत श्री तुलसी दास जी ने लिखा है..

पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव
न नाथ उरराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन
दसरथ सपथ सब साची कहौं॥
बरु तीर मारहु लखनु पै
जब लगि न पाय पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास
नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

( हे नाथ ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा; मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूँ। भले ही लक्ष्मण जी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ ! हे कृपालु ! मैं पार नहीं उतारूँगा। )
तुलसीदास जी आगे और लिखते हैं..

सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥

केवट के अटूट प्रेम से लबालब अटपटे वचन को सुन कर करुणा के सागर मर्यादापुर्षोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी जानकी जी और लक्ष्मण जी की ओर देख कर हँसे।
जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं कहो अब मैं क्या करूँ, उस समय तो यह केवल अँगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे डराकर भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर माँग रहा है।
केवट के रूप में वह कछुआ में बहुत चातुर्य था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पूर्वजों का भी उद्धार करवा लिया। तुलसी दास जी उसके बड़े भाग्य पर लिखते हैं..

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार॥

प्रभु के चरणों को पखार कर उसने अपने पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को भ्राता लक्ष्मण और माता सीता सहित गंगा के पार ले गया।
जब केवट भगवान् के चरण धो रहे है।
बड़ा ही मनमोहक दृश्य है, भगवान् का एक पैर धोकर उसे निकाल कर कठौती से बाहर रख देते है.. और दूसरा धोने लगते है, तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है,
केवट दूसरा पैर बाहर रखते है, फिर पहले वाले को धोते है, एक-एक पैर को सात-सात बार धोते है
फिर ये सब देखकर कहते है, प्रभु एक पैर कठौती मे रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो ।
जब भगवान् ऐसा ही करते है। तो जरा सोचिये.. क्या स्थिति होगी, यदि एक पैर कठौती में है दूसरा केवट के हाथो में,
भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले.. केवट मै गिर जाऊँगा ?
केवट बोला.. चिंता क्यों करते हो भगवन् !
दोनों हाथो को मेरे सिर पर रख कर खड़े हो जाईये, फिर नहीं गिरेगे,
जैसे जब कोई छोटा बच्चे को उसकी माँ उसे स्नान कराती है तो बच्चा माँ के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान् भी आज वैसे ही खड़े है।
भगवान् केवट से बोले.. भईया केवट ! मेरे अंदर का अभिमान आज टूट गया।
केवट बोला.. हे दीनानाथ! आप क्या कह रहे है ?
भगवान् बोले.. सच कह रहा हूँ केवट, अभी तक मेरे अंदर अभिमान था, कि.. मै भक्तो को गिरने से बचाता हूँ पर यह आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है।

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