सर्वमिदम

सर्वमिदम् दो शब्दों सर्वम् और इदम् से मिलकर बना है, जो सनातन पवित्र ग्रंथ श्रीमद्भगवद गीता के एक श्लोक से लिया गया है, जिसका अर्थ है "सर्वव्यापी"।

सृष्टि

सृष्टि की उत्पत्ति :-

सृष्टि से पूर्व सभी कुछ जलमग्न था, एकमात्र श्रीनारायण देव ही शेष शैया पर विश्राम कर रहे थे। तब एक सहस्त्र चतुर्युग तक शयन के बाद उन्ही के द्वारा नियुक्त कालषक्ति ने उन्हें सृष्टि के निर्माण के लिये प्रेरित किया। भगवान श्रीनारायण ने विचार कर ‘‘ एको बहुष्यामी‘‘  अर्थात मैं एक से अनेक होकर सृष्टि का सृजन करूँ!
 
तब उनके शरीर से सूक्ष्म तत्व के रजोगुण से क्षुमित होने पर उनकी नाभि से वह सूक्ष्म तत्व कमल के रूप में उग आया। उस सर्वलोकमय कमल में श्रीविष्णु भगवान अन्तर्यामी के रूप  में प्रविष्ट हो गये। जिससे बिना पढाये ही सम्पूर्ण वेदों के जानने वाले स्वयंभू ब्रह्मा उस कमल में प्रकट हुये। चारों और देखने पर भी उन्हें जब कुछ नही दिखाई नही दिया तो, मैं कौन हूॅ ? यह कमल कहां से उत्पन्न हुआ ? इसका आधार कहां है ? ऐसे प्रश्नों का, हल ढूंढने के लिये कमल नाल में चलने लगे।
 
उस अपार अंधियारी नाल में बहुत काल तक खोजने के बाद भी कमल नाल का आधार नही पा सके। तब वापस लौटे इस उपरान्त जल में से तप-तप ऐसा सुनकर अपने निर्माता का ज्ञान प्राप्त करने के लिये समाधिस्थ हो गये। योगाभ्यास से प्राप्त ज्ञान के कारण श्रीहरि में चित्त एकागृह कर उन्होंने उन्ही की स्तुति की और लोक रचना के विषय में मार्गदर्षन मांगा। तब भगवान श्रीनारायण ने कहा कि ब्रह्मा तुमने जो मेंरी स्तुति की है,उससे मैं बहुत प्रसन्न हूॅ। तुम विषाद न करों! सृष्टि निर्माण में जो तुम मुझ से चाहते हो वह मैं पहले ही कर चुका हूॅ। पुनः तप करों। तब तुम समस्त लोकों को और मुझकों स्वयं अपने अन्तसः में देखोगे और स्वयं समस्त लोकों को मुझमें स्थित देखोगे।
तब,ज्ञान,भक्ति, दान, उपासना, भजन, समाधि आदि साधनों से प्राप्त होने वाला कल्याणकारी फल मेंरी प्रसन्नता ही है। इसके पश्चात् जिस कमल पर ब्रह्माजी आसीन थे, उसी के तीन भाग हो गये-भूः, भूर्वः और स्वः। ये ही ब्रह्माजी द्वारा निर्मित तीनों लोक कहलाये।

हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखी तुरत बढ़ायो चीर।।

हे भगवान श्री हरि.....अपने भक्तों का संकट उसी प्रकार दूर कीजिए, जिस प्रकार आपने द्रोपदी का चीर बढ़ाकर उसकी लाज रखी थी और उसके संकट को दूर किया था।

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‘‘मन सब मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयों।
चित्ते चलेति संसारो निष्चले मोक्ष उच्चते‘‘

अर्थात मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण केवल मन ही है चित के चलाये संसार है और अचल किये मोक्ष है। दिन के समय अतिथि के लौट जाने से जितना पाप लगता है उससे आठ गुना पाप सूर्यास्त के समय अतिथि के लौटने से होता है। सूर्यास्त के समय आये हुये अतिथि का गृहस्थ पुरूष अपनी सामर्थ्यानुसार अवष्य सत्कार करें। सोने के लिये शय्या या घासफूस का बिछौना देकर उसका सत्कार करें।